Friday, April 6, 2012

गरीबों के साथ धोखाधड़ी



गरीबों के साथ धोखाधड़ी
 
(निर्धन आबादी के संदर्भ में योजना आयोग के ताजा आंकड़ों का खोखलापन उजागर कर रहे हैं डॉ. विशेष गुप्ता)
 गरीबी निर्धारण के तौर-तरीकों पर नए सिरे से फजीहत का सामना करने के बाद केंद्र सरकार विशेषज्ञों का एक समूह गठित करने जा रही है, जो गरीबी रेखा के मानक निर्धारित करने के मौजूदा मानदंडों की समीक्षा करेगा। दरअसल योजना आयोग ने गरीबों की घटती तादाद को लेकर जो ताजा आंकड़े प्रस्तुत किए हैं उससे एक बार फिर देश में कोहराम मच गया है। इन आंकड़ों से ऐसा जाहिर होता है जैसे योजना आयोग गरीबी की वास्तविकता से मुंह मोड़ रहा है। योजना आयोग के द्वारा गरीबी से जुड़े जो आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं उसमें कहा गया है कि देश में गरीबों की तादाद घट रही है। इस संबंध में योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2004-2005 में भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी जो 37.2 फीसदी थी वह 2009-2010 में घट कर 29.8 रह गई है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात 8 फीसदी घटकर 41.8 फीसदी की जगह 33.8 फीसदी पर तथा शहरी इलाकों में 5 साल पहले जो गरीबी 25.7 फीसदी थी वह अब 4.8 फीसदी घटकर 20.9 फीसदी पर आ गयी है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सरकारी आंकड़ों के आधार पर अब देश के गांव में हर तीन में से एक व्यक्ति गरीब है, जबकि नगरों में थोड़ी बेहतरी के साथ वहां हर 5 में से एक व्यक्ति गरीबी की श्रेणी में आता है। योजना आयोग ने गरीबी से जुड़े आंकड़ों से भी एक कदम आगे बढ़कर लोगों की आमदनी के आधार पर गरीबी का जो पैमाना विकसित किया है वह निश्चित ही जमीनी हकीकत से कोसों दूर है। उसमें स्पष्ट कहा गया है कि शहर में प्रतिदिन 28.65 रुपये और गांव में 22.42 रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। योजना आयोग ने इसी पैमाने के आधार पर माना है कि देश में गरीबी घट गई है। जरा स्मरण करें इसी संप्रग सरकार ने सितंबर 2011 में सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा प्रस्तुत किया था उसमें स्पष्ट कहा गया था कि शहरों में प्रतिदिन 32 रुपये और गांव में 26 रुपये खर्च करने वाले को गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को मिलने वाली सुविधाएं लेने का अधिकार नहीं है। उस समय भी गरीबी मापने के इस पैमाने को अव्यावहारिक बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी योजना आयोग को लताड़ लगाई थी। सरकार को इस विषय में कई सफाई देनी पड़ी थीं। इसके बावजूद भी योजना आयोग ने गरीबी मापने का जो पैमाना प्रस्तुत किया है वह पहले से अधिक अतार्किक और हास्यास्पद जान पड़ता है। आज योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत गरीबी से जुड़े आंकड़ों के साथ-साथ गरीबी रेखा निर्धारण की भी बहुत आलोचना हो रही है। उसका कारण भी साफ है कि देश के कई जाने-माने अर्थशास्त्री यह मानते हैं कि 70 के दशक में गरीबी रेखा का पहली बार निर्धारण करते समय एक सामान्य भारतीय के लिए जितनी कैलोरी का भोजन जरूरी माना गया था अब गरीबी रेखा के स्तर पर रहते हुए उससे भी काफी कम कैलोरी मिल रही है। ग्रामीण इलाकों में कैलोरी की यह गिरावट आठ फीसदी तथा शहरी क्षेत्रों में यह तीन फीसदी रही है। इसलिए यहां इस कड़वे सच को कहने में कोई हिचक नहीं कि भारत में गरीबी रेखा अब धीरे-धीरे भुखमरी की रेखा बनकर उभर रही है। अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे आज के योजनाकार आखिर किस विरोधाभासी युग में जी रहे हैं और आखिर कौन सी उनको यह मजबूरी है? गरीबी के इन आंकड़ों में क्षेत्रीय असमानताएं भी बहुत अधिक उजागर हुई हैं। गरीबी के मामले में कुछ राज्यों में हालात सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। प्रदेशों के स्तर पर गरीबी से जुड़ी क्षेत्रीय असमानताओं से साफ संकेत मिलते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में गरीबी नहीं घटी है। इन आंकड़ों में पूर्वोत्तर भारत की दशा तो और भी बदतर रही है। इससे भी अधिक चिंताजनक मामला दिहाड़ी के मजदूरों से जुड़ा है। आज यह गंभीर चिंतन का विषय है कि गांव व शहर के गरीबों के लिए अनेक योजनाओं के संचालन के बावजूद भी देश की आजादी के बाद गरीबों के आंकड़ों में कोई बहुत भारी कमी नहीं आई है। ऐसा लगता है कि देश के योजनाकारों ने गरीबी मापन का जो स्केल तैयार किया है उसमें गरीबी को मापने की जगह गरीबी को छिपाने का प्रपंच अधिक है। 2004-2005 में योजना आयोग ने कहा था कि देश में केवल 27 फीसदी लोग गरीब हैं। 2009 में सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा कि 37 फीसदी गरीब हैं। इसी बीच अर्जुन सेनगुप्ता की एक अन्य समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुल आबादी के 78 फीसदी हिस्से के गरीब होने का अनुमान प्रस्तुत किया था। इसके बाद एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने 56 फीसदी आबादी को गरीबी की श्रेणी में रखा था। अब योजना आयोग ने 2009-2010 के अंाकड़ों के आधार पर गरीबी का अनुपात घटाकर 29.8 फीसदी रहने का अनुमान जारी किया है। यह 21वीं सदी की चमचमाती दुनिया का विद्रूप चेहरा ही कहा जाएगा कि जहां एक ओर आक्रामक उपभोग का विस्फोट है तो दूसरी ओर अभावग्रस्त जीवन फटेहाल जिंदगी जीने को मजबूर है। आज अधिकतर लोग गरीबी की श्रेणी में इसलिए हैं, क्योंकि उनका वास्तविक हक उन्हें नहीं मिल पा रहा है। भारत की गरीबी की समस्या का हल केवल गरीबी से जुड़े आंकड़ों पर ध्यान केंद्रित करने से नहीं हो सकता। यहां मुख्य प्रश्न गरीब और अमीर के बीच संसाधनों में गैर-बराबरी और असमान वितरण से जुड़ा है। इसलिए हमें देश में लगातार बढ़ रही अमीरी पर भी सवाल उठाने होंगे। तभी हम गरीबी दूर करने की अपनी प्राथमिकता पूरी कर सकते हैं। (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं)

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