Friday, April 6, 2012

तेल के लिए खेल



तेल के लिए खेल
-निरंकार सिंह
 पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों को लेकर जंग जारी है। यह जंग व्यापार के कुटिल नियमों से लेकर तमाम तरह के आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से लड़ी जा रही है। जब इससे काम नहीं बनता है तो सीधे हमला कर दिया जाता है। अफगानिस्तान, इराक, लीबिया से लेकर ईरान तक जंग का कारण कच्चा तेल है। अब ईरान की बारी है। ईरान और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ते तनाव का कारण कच्चे तेल का संकट ही है। हालांकि घोषित तौर पर इसे ईरान का परमाणु कार्यक्रम बताया जा रहा है। ईरान ने 4 फरवरी को ही यह घोषणा कर दी थी कि वह संघ के देशों और ब्रिटेन को तेल का निर्यात बंद कर देगा। इसके बाद से ही यूरोपीय संघ और ईरान के बीच तनाव गहरा गया। ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम का प्रदर्शन करके इस संकट को और बढ़ा दिया है। इजराइल, अमेरिका और ब्रिटेन को लगता है कि ईरान परमाणु बम बनाने के लिए कार्यक्रम चला रहा है। पर संघर्ष और तनाव का असली कारण तेल का संकट ही है। पश्चिमी देश कोयला, पेट्रोल और सब प्रकार के खनिज पदार्थ अपार मात्रा में खर्च कर रहे हैं। ग्रेट ब्रिटेन की बची हुई कोयले की खानें अब इतनी ज्यादा गहरी, ढालू तथा तंग हैं कि वहां कोयला निकालना दिनोंदिन अधिक कठिन और खर्चीला होता जा रहा है। अब उसे ईधन के लिए मुख्यत: मध्य पूर्व के तेल पर निर्भर रहना पड़ता है। उसे अपने उद्योगों के लिए लगभग सारा ही कच्चा माल बाहर से मंगाना पड़ता है। अमेरिका ने 1900 की अपेक्षा 2010 में जलने वाला कोयला दस गुना, तांबा पांच गुना, जस्ता चार गुना और बिना साफ किया हुआ तेल (क्रूड ऑयल) तीस गुना अधिक जमीन से निकाला। राष्ट्रपति ट्रूमैन द्वारा नियुक्त सामग्री-नीति आयोग की 1952 की रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश धातुओं की और खनिज साधनों की जो मात्रा पहले विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने उपयोग किया, वह 1914 से पहले पूरी दुनिया के उपभोग से ज्यादा था। अमेरिका की जनसंख्या पिछले 50 वर्ष में दोगुनी हो गई है। वहां सारे खनिज पदार्थो का उत्पादन आठ गुना तक बढ़ा और विद्युत शक्ति का उपयोग बीस गुना ज्यादा है। 1900 में अमेरिका ने अपने उपभोग से लगभग 15 प्रतिशत अधिक उत्पादन किया जबकि 2010 में वह अपने उत्पादन से 50 प्रतिशत अधिक सामग्री खर्च कर रहा था। इस देश की कंपनियां और शेयर बाजार कभी अपने उपभोक्ताओं के खर्च का आंकड़ा देखकर नाच उठती थीं, लेकिन आज वे गहरे संकट में है। अमेरिका के पास संसार की गैर साम्यवादी जनसंख्या का 10 प्रतिशत से कम हिस्सा है और गैर साम्यवादी क्षेत्रफल का केवल 8 प्रतिशत हिस्सा है, परंतु 2010 में वह पेट्रोल, रबर, कच्चा लोहा, मैंगनीज और जस्ता जैसे बुनियादी कच्चे माल की समूचे संसार की उत्पन्न मात्रा का आधे से ज्यादा खर्च करता था। 2030 तक अमेरिका की कच्चे माल की मांग संभवत: कई गुना बढ़ जाएगी। इसमें खनिज पदार्थो से लेकर धातुएं, ईधन और अन्य पदार्थ शामिल हैं। खेती और उद्योगों के लिए पानी की आवश्यकता लगभग 200 प्रतिशत अधिक होगी। इस अवधि में अमेरिका की जनसंख्या जितनी बढ़ने की आशा है, उससे यह बढ़ोतरी बहुत अधिक हैं। वर्ष 2000 से संयुक्त राज्य अमेरिका ने कच्चे माल के निर्यात की अपेक्षा आयात अधिक किया है और यह घाटा बढ़ता जा रहा है। मंदी से पहले 2008 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने जिन महत्वपूर्ण कच्चे पदार्थो का आयात किया था उनमें कच्चा पेट्रोलियम, कच्चा लोहा, मैग्नीशियम, टंगस्टन, तांबा, जस्ता, सीसा, बॉक्साइट, पारा, ग्रेफाइट, एंटिमनी, कोबाल्ट, मैंगनीज के अलावा एस्बेस्टस, गिलट, टीन, क्रोमाइट तथा औद्योगिक उपयोग के लिए हीरे शामिल थे। इन आंकड़ों से दुनिया के सबसे ज्यादा उद्योग प्रधान राष्ट्र में कच्चे माल की अदम्य भूख और उसके अविचारपूर्ण खर्च तथा पूंजीवाद की इस विशेष प्रवृत्ति का ही प्रमाण नहीं मिलता, बल्कि यह भी सिद्ध होता है कि पूंजीवाद में मर्यादा का कोई सिद्धांत नहीं होता। निरंतर बढ़ते रहने वाले बाजार का सिद्धांत पूंजीवाद का मूलभूत सिद्धांत है। पूंजीवादी उद्योगवाद प्राकृतिक साधनों को इनती तेजी से खर्च कर रहा है कि कहा जा सकता है कि वह हमारी भावी संतानों, कमजोर राष्ट्रों और जातियों की संपत्ति पर मौज उड़ा रहा है और अच्छे जीवन की सामग्री से उन्हें वंचित कर रहा है। पूंजीवादी देशों को अब घटते उत्पादन के नियम का सामना करना पड़ रहा है। ये सफलताएं बड़ी हद तक इस कारण मिलीं कि अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे प्रदेशों के द्वार इनके लिए खुले रहे। यूरोप और ग्रेट ब्रिटेन ने एशिया और अफ्रीका का शोषण किया और विज्ञान तथा शिल्प विज्ञान की उन्नति हुई। अब कोई खाली उपजाऊ प्रदेश नहीं रह गया है। यूरोप और ब्रिटेन के बाहर उद्योगों का विकास न होने और युद्धों के कारण राजनीतिक परिवर्तन होने तथा गरीबी फैलने से सब जगह बाजार संकुचित होते गए। यूरोप और इंग्लैंड के सिवाय सब जगह भूमि क्षरण के कारण अन्न उत्पादन लगातार घट रहा है। सत्ता थोड़े से लोगों के हाथों में केंद्रित होती जा रही है। विभिन्न दलों में विरोध बढ़ रहा है और सत्ता का भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। युद्ध बार-बार होते हैं उनकी व्यापकता बढ़ती है और वे अधिकाधिक विनाशकारी होते जाते हैं। शोषण सिफ लोगों के ही खिलाफ काम नहीं करता, बल्कि भूमि और जंगलों के विरुद्ध भी काम करता है। पूंजीवादी पैसे और सत्ता को अपना ईश्वर बना लेता है और फिर उस ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए लगभग सब कुछ कुर्बान कर देता है। उसने सारी संस्कृतियों और धर्मो को गंभीर हानि पहुंचाई है और अब वह अपना ही विनाश कर रहा है। प्रतिस्पर्धा मानव प्राणियों के बीच का आवश्यक और सबसे मजबूत संबंध है। बाजार चाहे जिस सीमा तक बढ़ाए जा सकते हैं। अंत में पैसा ही सब मूल्यों का उचित माप है और राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता का संचालन सर्वोच्च मानव प्रवृत्ति पर है। अनियंत्रित पूंजीवाद पर अब और विश्वास नहीं किया जा सकता। यह अब असह्य हो गया है। अपनी प्रारंभिक अवस्था में शायद इसने मानव जाति के लिए अनेक कीमती काम किए। जिस विज्ञान और शिल्प विज्ञान का उसने प्रयोग किया वे मानव जाति के लिए मूल्यवान हैं, परंतु अब हर जगह पूंजीवादी व्यवस्था पर अंकुश लगाया जा रहा है, क्योंकि सिद्धांत के रूप में पूंजीवाद आत्मघातक है। इस युग के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति रहे हैं महात्मा गांधी। गांधीजी ने आर्थिक प्रश्नों पर बहुत कुछ कहा है। उन्होंने जिस आर्थिक सिद्धांत का विवेचन किया है वह हिंदू समाज से और संभवत: बौद्ध समाज से भी मेल खाता है। कोई भी व्यक्ति या समाज जब तक अपनी संपत्ति का उपभोग अपने साथियों के साथ करने को तैयार नहीं होगा तब तक वह अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता। नहीं तो लोग विद्रोह करेंगे और एक-दूसरे के खिलाफ मुहिम चलाएंगे। स्वेच्छा से सांसारिक सुखों का त्याग लोकतंत्र के लिए नितांत आवश्यक है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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